Tuesday, December 17, 2013

राहुल गाँधी ने रखा एनिमल बिल का प्रस्ताव (व्यंग्य)

Rahul Gandhi's Animal Bill:
आख़िरकार राहुल गाँधी ने अपनी माँ और कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गाँधी के सामने एक समझदारी भरा प्रस्ताव रख ही दिया, राहुल गांधी ने एनिमल बिल का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि अब देश की इंसानी जनता की हमारी पार्टी में कोई रूचि नहीं है तो क्यों न हम बन्दर प्रजाति को ही समाज की मुख्य धारा में शामिल कर लें और उन्हें मतदाता बनाकर प्रशिक्षित करें और इस से हिन्दुओं के बीच भी  हमें समर्थन प्राप्त होगा क्योंकि उनके भगवान श्री हनुमान जी हैं और बन्दर उनकी सेना |


वहीँ मुलायम सिंह यादव ने सूअरों का प्रस्ताव आगे किया और मायावती ने कहा कि भैंस को आरक्षण मिलना चाहिए |
दिग्विजय सिंह ने नाराजगी जताते हुए कहा कि सोनिया जी सिर्फ राहुल जी नहीं मेरी भी मम्मी हैं तो मेरी बात भी सुनी जानी चाहिए और मेरी प्रजाति के लोगों को मुख्य धारा में शामिल करना चाहिए क्योंकि वो ही सबसे वफादार माने जाते हैं |

चुनाव आयोग ने पहले से ही योजना बनाने के लिए गाय, भैंस, बन्दर, कुत्ता और सभी प्रजातियों के जानवरों के पास एक पत्र भेजा है जिसमे बहुमत से हर प्रजाति से एक प्रतिनिधि चुनने का निर्देश दिया गया है |

यह बात और गंभीर हो गयी जब जंगल के राजा बब्बर शेर ने फ़तवा जारी करके कहा कि अगर कोई भी जानवर इन काफिर इंसानों के समूह का हिस्सा बनने जाता है तो उसे अछूत मान लिया जाएगा क्योंकि ये सब अपने समाज नहीं बल्कि सिर्फ पैसों से मतलब रखते हैं और जो आमंत्रण हमें भेजा गया है उसमे भी इनका अपना स्वार्थ है |

कुत्ता सिंह ने कहा कि मैं जब फेसबुक देखता हूँ तो लोग दिग्विजय सिंह की तुलना मुझसे करके मेरी बेज्जती करते हैं मैं इसके खिलाफ कुत्ता समाज हित के लिए एक याचिका दायर करना चाहता हूँ |
इस मामले को जल्दी ही संसद में उठाये जाने की बात भी चल रही है और अरविन्द केजरीवाल ने गधे का प्रस्ताव रखकर कहा है कि अगर गधे को मुख्य धारा में लाया जाएगा हम तभी सरकार बनायेंगे |

देखिये आगे क्या होता है .. लेकिन एक बात तो साफ़ है कि दोनों ही पक्ष अपने वसूलों के पक्के हैं |

Thursday, December 5, 2013

क्या हम जिम्मेदार हैं ... ??

हम अक्सर जिम्मेदारियों की बात करते हैं, आखिर जिम्मेदार कौन है ?
सड़क के लिए जिम्मेदार कौन है?
पानी के लिए जिम्मेदार कौन है ?
चाय में कम चीनी के लिए जिम्मेदार कौन है ?
भारत के मैच हारने का जिम्मेदार कौन है ?
गाड़ी का एक्सीडेंट होने का जिम्मेदार कौन है ?
और आपका चश्मा टूटने का जिम्मेदार कौन है ?.... ऐसी हज़ारों जिम्मेदारियों का जिम्मा हमारे अलावा और पूरी दुनिया ने लिया होता है .. सामान्यतः हम किसी भी चीज के जिम्मेदार नहीं होते .. क्यूंकि सिर्फ जब कुछ बेहतर हुआ हो तो हम जिम्मेदार हो सकते हैं लेकिन अगर गलत है तो हम जिम्मेदार हो ही नहीं सकते .
क्यों..?
क्योंकि हम कह रहे हैं .. जानते नहीं हो हमें .. ?

इस समय बात कर रहा हूँ नेताओं के सन्दर्भ में .. जब भी कोई भी समस्या हमारे समाज में होती है यहाँ तक कि हमें व्यक्तिगत रूप से भी कोई समस्या होती है तो अधिकतर बार वह बात यहीं आकर समाप्त होती है कि नेता जिम्मेदार है ... 

अगर किसी व्यक्ति ने कई वर्ष काम करते हुए नेता गया, या लोग उसे नेता कहने लगे तो वह अकेला जिम्मेदार पुरे समाज का हो जाता है .. उस से उम्मीदें ऐसी की जाती हैं जैसे किसी राजशाही खानदान का राजकुमार हो वह नेता .. 
किसी को भी अगर वह एक अच्छा विद्यार्थी है तो 3-4 या अधिकतम 5 वर्ष लगते हैं आईएएस या आईपीएस कि परीक्षा उत्तीर्ण होने में लेकिन एक साधारण व्यक्ति को नेता बनने में 24 घंटे काम करते हुए बीसों साल लग जाते हैं और तब भी कोई गारंटी नहीं होती है कि वह नेता बना रहेगा.. उसे कभी भी गद्दी छोडनी पड़ सकती हैं .. और वह गद्दी पर है चाहे नीचे .. उसे जनता की सभी उम्मीदों पर खरा उतरना पड़ता है .. ऐसा नहीं होता जैसे कोई अर्दली आकर कह देता है कि डीएम साहब आज छुटटी पर हैं तो कोई उन्हें परेशान नहीं करेगा | नेता को कभी भी कोई भी कहीं भी बुला सकता है .. नाली टूटने से लेकर पुल टूटने तक .. और क्लर्क से लेकर डीएम तक के काम न करने की वजह भी कहीं नहीं कहीं नेता को ही मान लिया जाता है .. 

लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या अगर हम नेता को बुरा कहने में संकोच नहीं करते और उसे लगातार लगभग हर परेशानियों और दिक्कतों के लिए जिम्मेदार ठहरा देते हैं तो क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या हमारा इस लोकतंत्र, इस समाज में कोई योगदान नहीं है ..? हम अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभा नहीं सकते या हमें सिर्फ बोलना आता है, खाना आता आता है चिल्लाना आता है लेकिन कुछ करना नहीं आता ...?? 

जब हम किसी नेता के कद की बात करते हैं तो सबसे पहले आर्थिक आकलन करते हैं, चारपहियों का आकलन करते हैं, उसके जेब में पैसे की बात करते हैं .. 

कोई भी व्यक्ति कोई कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसी नेता को बुलाता है जो उसे कुछ आर्थिक मदद कर सकता है .. या उसी नेता के साथ खड़ा होता है जिस से उसे कुछ आर्थिक मदद मिलती हो .. जो किसी नेता के साथ एसी गाड़ियों में घूमने को पाता है वही नेता अच्छा होता है ..

हम नेताओं का आकलन उनके व्यक्तित्व और काम करने की इच्छाशक्ति से नहीं बल्कि बल्कि उसी भौतिक सम्पन्नता से करते हैं तो हम नेताओं से उम्मीद ही क्यों रखते हैं कि वो कुछ बेहतर करेंगे ... वोट उसको पड़ता है जो पैसे बांटता है ... तो काम भी तो उसी का होगा जो पैसे देगा .. 

कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी ... नेता उसको मानिये जो आपके सुख दुःख में आपके साथ खड़ा हो .. ऐसा नहीं कि सिर्फ आपको कुछ आर्थिक या भौतिक लाभ पहुंचाए .. दरअसल जब हम अपने व्यक्तिगत लाभों को एक किनारे करके समाजहित के लिए उपयुक्त नेता ढूँढने लगेंगे तो विकल्प आस पास ही मिल सकते हैं .. जरुरत है आर्थिक प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकलने की ... 

और जब इस तरह का माहौल हम दे पाने में कामयाब होंगे तो शायद निम्न वर्ग के परिवारों और मध्यम वर्ग के परिवारों के युवा भी राजनीति में अपनी भागीदारी के विषय में सोच पायेंगे .. और तब ही से स्वस्थ प्रतियोगिता जैसी चीज राजनीति में भी देखने को मिल सकती है .. नहीं तो जो हो रहा है वो तो सबके सामने है ही ...

Monday, December 2, 2013

आखिर क्यों कुछ नया किया जाय ?

बहुत दिनों से कुछ नया नहीं दिखा रहा है, न कुछ नया चल रहा है न कोई नया कुछ कह रहा है .. सब कुछ ऐसा लगता है जैसे सदियों से चला आ रहा है | लगता है जैसे बदलाव न हो रहे हैं और न ही कोई गुंजाइश है, जैसे मानो बदलाव ऊर नयेपन को लकवा मार गया हो | पता नहीं कोई नया कुछ करना नहीं चाहता या कोई अब कुछ नया देखने कि इच्छा ही नहीं रखता या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि सभी को उस परम सत्य कि प्राप्ति हो गयी जिसे सुकरात भी सिर्फ खोजते ही रह गए?

एक पहलू यह है कि कोई कुछ नया करना नहीं चाहता, आखिर क्यों कुछ नया किया जाय ? "इस से हमारा फायदा क्या होगा?" क्या हमें ही गरज है नया करने की .. कोई और क्यों नहीं करता .. हम ही सबका ठेका ले लें?... क्यों सब नया करने के लिए हमारे ऊपर थोपना चाहते हो? क्या पूर्वजों ने जो कर दिया वो काफी नहीं है? .. जो सिस्टम है उसका हिस्सा बनने में ही भलाई है .. नया करोगे तो पिसोगे .. अरे भाई जरुरत ही क्या है?.. हम जो कर रहे हैं उस में हम खुश हैं हमें और नहीं चाहिए ...|

दूसरा पहलु यह भी हो सकता है कि कोई कुछ नया करवाना ही नहीं चाहता .. आखिर क्या करेंगे यह लोग नया करके .. इन लोगो का सिर्फ समय खराब होगा .. नयापन इन लोगो के लिए है ही नहीं .. कहीं कुछ नया हो गया तो सब हमारे हाथ से निकल न जाए !! .. ये लोग तब भी वैसे ही रहेंगे .. ये लोग जैसे हैं इनके लिए वही ठीक है .. क्यूँ इनका समय बर्बाद करना .. जो है उसी में काम कर लें वही बहुत है .. ये नया करेंगे तो हमारा काम कौन करेगा ???

लेकिन एक गंभीर पहलू यह भी हो सकता है कि लोगो को नया करने के लिए मौका नहीं मिल पाता .. पैसा कमायें या नया करें .. कहीं मुझे निकाल न दिया जाय .. पापा नाराज हो जायेंगे... बॉस निकाल देगा .. संसाधन नहीं हैं .. संस्थान नहीं हैं .. समय नहीं है .. समर्थन नहीं है .. मेरे लायक नहीं है .. मैं क्या करूँ ??


दरअसल मैं बात कर रहा हूँ आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नया करने के लिए .. आज शिक्षा उसे कह रहे हैं जिसमे शायद शिक्षा का अंशमात्र भी नहीं है .. हम अपनी परंपरागत प्रणाली को दरकिनार करते हुए लगातार नौकर बनाने वाले साधनों पर बल देते हैं .. हम नियमित कक्षाओं पर नहीं क्रैश कोर्सेज पर बल दे रहे हैं .. हम शिक्षा को शोध और सोच से कहीं दूर सिर्फ शोक कि अवस्था में ले जाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं |


हम नौकरों और नौकरशाहों की जमात कड़ी करने में लगे हैं लेकिन इस पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं कि इनके नैतिक मूल्यों के बारे में कौन सोचेगा ? इनकी कार्यपद्धति के बारे में कौन सोचेगा ? इनकी दिशा कैसे तय होगी ? हम टीवी बनाते जा रहे हैं और रिमोट भी बना रहे हैं लेकिन डिशटीवी को सन्देश देने वाले उस महान सेटलाईट को नजरअंदाज कर रहे हैं |


काम और कागज़ और भौतिक रूप में दिखने वाली चीजों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है वो सोच जो उनमे दिखती हो | और ऐसी सोच और सिद्धांतों का निर्माण होता है जब हम शोध करते हैं, चिंतन करते हैं, मनन करते हैं लेकिन हमारी व्यवस्था इसकी इजाजत नहीं दे पाती | कहने के लिए शोध पर खूब पैसे खर्च होते हैं और कई विद्यार्थी और बुद्धिजीवी लोग शोध और सोच में लगे हुए हैं लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम कहीं दिखते नहीं हैं |

अभी जल्दी ही UGC के उप चेयरमैन श्री देवराज जी ने कहा है कि हम कन्वेंशनल कोर्सेज कि जगह पर वोकेशनल कोर्सेज 10 वर्ष के भीतर ही लायेंगे | इसका मतलब तो यही है कि आप सोच को बंद करके सिर्फ नौकरी कराने के लिए शिक्षा देना चाहते हैं | आप वोकेशनल कोर्सेज ले आइये इसमें क्या दिक्कत है लेकिन कन्वेंशनल कोर्सेज की जगह लाना किसी भी रूप में सही नहीं दिखता और अगर ऐसा होता है तो भारत के लिए तो बहुत ही घातक होगा और मैकाले के सपने को हम काफी हद तक सच करने में सफल होंगे |

Friday, November 29, 2013

अंग्रेजों से लड़ना कहीं ज्यादा आसान था .......

बहुत दिनों से हम लखनऊ को कोस रहे हैं, जब से लखनऊ में रहने और पढने कि योजना पर क्रियान्वन हुआ और हम लखनऊ आये और लगभग 2 - 3 दिन बिताये तभी से कोसना शुरू कर दिए थे, क्यों कोस रहे थे यह बहुत समझ नहीं आता था और न ही हम बहुत व्यक्त कर सकते थे, लेकिन हाँ कुछ तो था जो अच्छा नहीं था, हम सहज नहीं महसूस कर रहे थे यहाँ, उर्जा की कमी दिख रही थी इस शहर में, हमेशा ऐसा लग रहा था कि कहीं हमने कोई गलती तो नहीं कर दी लखनऊ में पढाई करने का फैसला लेकर |
जबसे लखनऊ आये हैं तब से बहुत नहीं घूमे लेकिन जब जरुरत पड़ी तो लोगो ने बताया कि किताबें अमीनाबाद में मिलती हैं और बस दोपहर में मैं और मेरे मित्र योगेश हम दोनों ऑटो से अमीनाबाद कि लिए निकल पड़े, एमिटी यूनिवर्सिटी चौराहे से चिनहट से पॉलिटेक्निक से भूतनाथ से निशातगंज से लखनऊ विश्वविद्यालय होते हुए फटफटाती ऑटो हम काफी आगे बढे और एक जगह जाकर ऑटो रुका और ड्राईवर बोला "उतरो अमीनाबाद", मैंने एक दूकान के बोर्ड पर नीचे लिखा देखा 'राजा बाजार' और मैंने उस से कहा कि यह तो राजा बाजार है तो उसने कहा कि आगे अमीनाबाद है |
हम ऑटो से उतर गए और अब हम पैदल थे, जब हमने चलना शुरू किया तो वहीँ से एक मैदान की दीवार भी शुरू हो रही थी, काफी बड़ा मैदान दिख रहा था यह, लेकिन इसमें बीच - बीच में मूर्तियाँ थीं और बहुत से छुट्टा जानवर और लोग थे, मैं बहुत गौर से अपने साथ चल रही उस दीवार और और उसके अन्दर के मैदान को देख रहा था और मैं मेरे मित्र हम दोनों इस पर चर्चा करने लगे कि आखिर यह किसकी मूर्ति है और इस मैदान को इतनी बढ़िया दीवारों से घेरा क्यों गया है? हमने तय किया कि किताबें खरीदने के बाद हम इस मैदान और मूर्तियों के बारे आस पास के लोगो से पूछ लेंगे और हमें इतना दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है |
दुकान पर पहुंचे किताबों के नाम लिए कुछ किताबें मिलीं और कुछ नहीं मिलीं, लेकिन एक बात जरुर कहना चाहूँगा कि जो हमेशा सुनते और पढ़ते आये थे कि यह नवाबों का शहर है और तहजीब का नमूना यहाँ देखने को मिलता है, ऐसा कुछ भी उस दूकान और दुकानदार के व्यवहार से नहीं लगा | 
अंततः हमने किताबों का मूल्य दिया और सबसे पहले उस अधेड़ उम्र के दुकानदार से पूछा कि आप कितने दिनों से यहाँ हैं तो जवाब दिया उन्होंने कि, "बचपन कि शुरुआत ही यहीं से हुयी है भैया, अब हमसे पूछेंगे कि हम कबसे हैं" तो मैंने तपाक से दूसरा सवाल सामने रख दिया, "यह सामने मैदान कैसा है और यह मूर्ति किसकी है?" तो उन्होंने जवाब दिया "मैं नहीं जानता भाई, कोई पार्क है ये|" 
बस यही था वो जवाब जिसे सुनकर दिमाग में अजीब सा कोलाहल हुआ और फिर सोचा कि क्यों न कुछ और लोगो से पूछा तो लोगों ने कुछ इस तरह से जवाब दिए :
"अरे भैया ! हम दूकान लगाते हैं, हमें इस से क्या मतलब?"
"नहीं जानते "
"बहुत दिन से है, हम नहीं जानते |"
"अम्बेडकर की है शायद!"
हमने तय किया कि हम खुद ही जाकर देख लेते हैं कि यह कैसा मैदान है और किसकी मूर्तियाँ हैं | अन्दर घुसने से पहले एक मोटरसाइकिलों का स्टैंड था, दीवारों पर तमाम तरह के पुराने कपडे और कूड़े फेंके हुए दिख रहे थे, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस दीवार को बहुत दिनों से उपेक्षित कर दिया गया था लेकिन ऐसा सिर्फ दीवारों पर ही नहीं था, जब हम अन्दर उस विशाल गेट से होते हुए अन्दर उस बड़े मैदान में घुसे तो ऐसा लगा जैसे पियक्कड़ों के संरक्षण क्षेत्र के रूप में उस मैदान को आरक्षित किया गया था | जिस तरफ देखो उधर लोग पी कर मदहोश लेटे या बैठे हुए थे तो कोई ताश खेल रहा था, और जानवरों की स्थिति उन नशे में धुत लोगों से ज्यादा बेहतर दिख रही थी क्यूंकि वो जानवर उस मैदान में फेंके गए कूड़े करकट साफ़ कर के मैदान साफ़ ही कर रहे थे | 
आगे देखना था कि यह मूर्ति किसकी है ?
पहली मूर्ति थी हाथ में भारत का झंडा लिए हुए ऊर्जा से ओतप्रोत चेहरे पर ओज के साथ अमर शहीद गुलाब सिंह लोधी की जिन्होंने वर्ष 1933 में लखनऊ की एक पार्क के चारों तरफ लगी अंग्रेजी सेना को धता बताकर पेड़ पर झंडा फहराया तो अंग्रेजों की गोली का शिकार होकर शहीद हो गए। तभी से उक्त पार्क का नाम झंडे वाला पार्क पड़ गया। यह ठीक है कि शहीद के बलिदान का कोई मूल्य नहीं होता | यह झंडेवाला पार्क ही था लेकिन यहाँ कुछ भी पार्क जैसा नहीं था | 
स्वतंत्रता प्राप्ति में झंडा आंदोलन का विशेष महत्व है। कई लोगों ने इसके अस्तित्व की लड़ाई में सीने पर गोली खाने से भी परहेज नहीं किया। फतेहपुर चौरासी क्षेत्र के ग्राम चंद्रिकाखेड़ा के युवक गुलाब सिंह लोधी ऐसे ही साहसी थे | लेकिन अब उनका साहस किसी काम का नहीं है क्यूंकि अंग्रेजों से लड़ना कहीं ज्यादा आसान था इस आजाद भारत के घाघ नेता और अधिकारियों से लड़ने से |
उनकी मूर्ति कबूतर की बीट खा रही है और कोई देखने वाला नहीं है और ऐसी ही स्थिति जो दूसरी मूर्ती है वो है युवाओं के प्रेरणास्रोत और जिसकी 150वां जन्मवर्ष हम मना रहे हैं ऐसे श्री स्वामी विवेकानंद जी कि प्रतिमा और उसकी यह स्थिति देखकर काफी दुर्भाग्य का अनुभव हुआ |
आगे और पता नहीं लखनऊ की और कैसी तस्वीरें देखने को मिलेंगी लेकिन यह तस्वीर बिलकुल भी अच्छी नहीं थी | बहुत खुश नहीं बल्कि निराशा के साथ यह लेख लिखा हूँ |


Friday, June 21, 2013

श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी : तेजस्वी अभिभावक

आज दिल्ली में श्री सत्य साईं सभागार, दिल्ली में डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी जी के बलिदान दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में देश के वरिष्ठतम नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को प्रत्यक्ष सुनने का अवसर प्राप्त हुआ| आडवाणी जी के मंच पर पहुँचने से लेकर अपना स्थान ग्रहण करना और दीप प्रज्जवलन से लेकर डायस पर जाने तक को देखने से कोई भी समझ सकता है कि हम किसी बड़े देश के बड़े नेता के क्रियाकलापों को देख रहे हैं| अडवाणी जी ने अपने युवावस्था के कई संस्मरणों को बिलकुल उसी भांति बताने कि कोशिश कि जैसे किसी समान्य परिवार का बुजुर्ग अपने परिवार की नयी पीढ़ी को पुराणी बातें बताता है| भाव ऐसा मानों हम सब भी उन सब घटनाओं को महसूस कर सकते हों| अडवाणी जी को सुनना किसी संत वाणी से कम नहीं रहा| अडवानी जी के व्यक्तित्व में एक अलग तेज दिख रहा था जो सामान्यतः मैंने किसी नेता में नहीं देखा है| मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी जितनी सौभाग्यशाली पार्टी और कोई नहीं होगी जिसके पास इतने तेजस्वी व्यक्तित्व का अभिभावक हो|

Monday, March 11, 2013

गौ माँ


Saturday, March 2, 2013

अरे ! राजनीति नहीं भईया...

अपने देश के लोकतंत्र को जब करीब से देखता हूँ तो इसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था को खोजने से भी नहीं पाता हूँ । ऐसे समाज को कैसे लोकतंत्र कहा जा सकता है जहा हर वह व्यक्ति जो कुछ समाज में बदलाव चाहता है और उसे संसाधनों की वजह से अपने आपको रोकना पड़ता है । कोई व्यक्ति चुनाव में खड़ा होकर बेहतर राजनीती को समाज का हिस्सा बनाना चाहता है तो सबसे पहले खर्च होने वाले करोड़ रुपये का ख्याल आता है।

राजनीति की ही बात करता हूँ । कोई भी मध्यमवर्गीय व्यक्ति बहुत आसानी से चुनाव लड़ने के बारे में नहीं सोच सकता क्यूंकि सबसे पहले उसे खर्च होने वाली धनराशी का ख्याल आता है ।

एक जगह युवाओं को लेक्चरबाजी करते हुए मैंने उनको सलाह दिया की "राजनीति एक मौका है देश को एक सही व्यवस्था देने का", तो उनमे से एक नौजवान का तुरंत जवाब आया, "भईया राजनीति हमारे लिए नहीं बल्कि उनके लिए है जो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं या फिर जिनके घर में पहले से ही कोई नेता हो"

ख़ास बात तो यह है की देखने  को मिलता है कि जो नौजवान किसी भी पार्टी या बड़े नेता के साथ कार्यकर्ता के रूप में लगे रहकर मेहनत भी करते हैं उन्हें भी कभी मौका नहीं मिल पाता और एक समय ऐसा आता है जब उन्हें भी कुछ गलत करने के लिए मजबूर हो जाना पड़ता है जो भी भ्रष्टाचार का एक कारण है ।

अधिकतर पार्टियाँ ऐसी हैं जहां कार्यकर्ताओं को नहीं बल्कि बाहुबलियों को मौका दिया जाता है, और जब तक ऐसा चलता रहेगा हम बदलाव की उम्मीद कैसे रख सकते हैं । जो प्रत्याशी चुनाव में खड़े होने के लिए टिकट के लिए अच्छे खासे रुपये खर्च करेगा उससे यह उम्मीद कैसे रख सकते हैं की चुनाव जीतने के बाद वो सरकारी पैसे को पूरी तरह से समाज के लिए खर्च करेगा ?

व्यवस्था कुछ ऐसी होनी चाहिए कि टिकट बंटवारा योग्यता के आधार पर हो जिसमे आर्थिक योग्यता सबसे बाद में देखी जाय, चुनाव आयोग को ऐसी कड़ी व्यवस्थाएं देनी चाहिए जिस से चुनाव प्रचार में होने वाला व्यय कम से कम हो, जिससे आम आदमी भी चुनाव में लड़ने के बारे में सोच सके । 

Thursday, February 28, 2013

नगर के डगर की तस्वीर - भाग 1

यह तस्वीर सिर्फ उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की ही नहीं बल्कि भारत के लगभग हर विकसित और विकासशील नगर की है | हर नगर में एक ऐसी बस्ती मिल जायेगी जिनका उस नगर की मुख्य धारा से कोई ख़ास ताल्लुक नहीं रहता | और इनके बच्चे इस तरह सड़क के किनारे बड़े बड़े नालों में अपनी छोटे से बचपन को ढूंढते हुए मिल जाते हैं | उन्हें जिंदगी का मतलब पानी की खाली बोतलों से लेकर और गुटखे के पैकेट तक ही मालूम है | उन्हें इस बात से मतलब नहीं होता की मैच भारत जीतेगा या इंग्लैंड और न ही इस से मतलब होता है की फिल्म कौन सी रिलीज हो रही है, वो भारत के प्रधानमंत्री के बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते |

छोटू को सिर्फ इतना मालूम है की पास वाली गली में अगर वो जल्दी ही नहीं गया तो इक़बाल वहां से कूड़े में से सामान निकल कर लेता जाएगा | उसे मालूम है की सुबह सुबह कौन कौन सी जगहें हैं जहां वह जाकर शराब की बोतलें पा सकता है जिसे बेच कर वो अपने घर पैसे लाएगा |

ऐसा घर जिसमे सभी को अपनी जिम्मेदारियां बाकायदा पता है | किसी को रोज अपना काम करने के लिए बताना नहीं पड़ता | माँ को अपने सबसे छोटे बच्चों के साथ रेलवे स्टेशन निपटाकर फिर मोहल्लों में भीख मांगने जाना है, बड़ी बेटी और लड़के को कूड़ा इकठ्ठा करने जाना है और बाप को शाम के समय सबका हिसाब लेना है |

इनके पास की समाजसेवी संस्थाएं इनके लिए अगर कुछ करने का प्रयास भी करें तो इन्हें लगता है की वो इनका भविष्य बिगाड़ रही हैं । अगर इनके बच्चों को शिक्षा देने की बात की जाती है तो इन्हें लगता है कि घर का एक कमाने वाला कम हो जायेगा ।

लेकिन फिर भी इस तस्वीर को बदलने की आवश्यकता है और इन्हें जो भी कोशिश हो करके समझाना होगा । इनके लिए भी योजनायें होनी चाहिए और उनपर बेहतर काम भी होना चाहिए ।

-भावेष कुमार पाण्डेय 'विनय' 

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