Tuesday, December 17, 2013

राहुल गाँधी ने रखा एनिमल बिल का प्रस्ताव (व्यंग्य)

Rahul Gandhi's Animal Bill:
आख़िरकार राहुल गाँधी ने अपनी माँ और कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गाँधी के सामने एक समझदारी भरा प्रस्ताव रख ही दिया, राहुल गांधी ने एनिमल बिल का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि अब देश की इंसानी जनता की हमारी पार्टी में कोई रूचि नहीं है तो क्यों न हम बन्दर प्रजाति को ही समाज की मुख्य धारा में शामिल कर लें और उन्हें मतदाता बनाकर प्रशिक्षित करें और इस से हिन्दुओं के बीच भी  हमें समर्थन प्राप्त होगा क्योंकि उनके भगवान श्री हनुमान जी हैं और बन्दर उनकी सेना |


वहीँ मुलायम सिंह यादव ने सूअरों का प्रस्ताव आगे किया और मायावती ने कहा कि भैंस को आरक्षण मिलना चाहिए |
दिग्विजय सिंह ने नाराजगी जताते हुए कहा कि सोनिया जी सिर्फ राहुल जी नहीं मेरी भी मम्मी हैं तो मेरी बात भी सुनी जानी चाहिए और मेरी प्रजाति के लोगों को मुख्य धारा में शामिल करना चाहिए क्योंकि वो ही सबसे वफादार माने जाते हैं |

चुनाव आयोग ने पहले से ही योजना बनाने के लिए गाय, भैंस, बन्दर, कुत्ता और सभी प्रजातियों के जानवरों के पास एक पत्र भेजा है जिसमे बहुमत से हर प्रजाति से एक प्रतिनिधि चुनने का निर्देश दिया गया है |

यह बात और गंभीर हो गयी जब जंगल के राजा बब्बर शेर ने फ़तवा जारी करके कहा कि अगर कोई भी जानवर इन काफिर इंसानों के समूह का हिस्सा बनने जाता है तो उसे अछूत मान लिया जाएगा क्योंकि ये सब अपने समाज नहीं बल्कि सिर्फ पैसों से मतलब रखते हैं और जो आमंत्रण हमें भेजा गया है उसमे भी इनका अपना स्वार्थ है |

कुत्ता सिंह ने कहा कि मैं जब फेसबुक देखता हूँ तो लोग दिग्विजय सिंह की तुलना मुझसे करके मेरी बेज्जती करते हैं मैं इसके खिलाफ कुत्ता समाज हित के लिए एक याचिका दायर करना चाहता हूँ |
इस मामले को जल्दी ही संसद में उठाये जाने की बात भी चल रही है और अरविन्द केजरीवाल ने गधे का प्रस्ताव रखकर कहा है कि अगर गधे को मुख्य धारा में लाया जाएगा हम तभी सरकार बनायेंगे |

देखिये आगे क्या होता है .. लेकिन एक बात तो साफ़ है कि दोनों ही पक्ष अपने वसूलों के पक्के हैं |

Thursday, December 5, 2013

क्या हम जिम्मेदार हैं ... ??

हम अक्सर जिम्मेदारियों की बात करते हैं, आखिर जिम्मेदार कौन है ?
सड़क के लिए जिम्मेदार कौन है?
पानी के लिए जिम्मेदार कौन है ?
चाय में कम चीनी के लिए जिम्मेदार कौन है ?
भारत के मैच हारने का जिम्मेदार कौन है ?
गाड़ी का एक्सीडेंट होने का जिम्मेदार कौन है ?
और आपका चश्मा टूटने का जिम्मेदार कौन है ?.... ऐसी हज़ारों जिम्मेदारियों का जिम्मा हमारे अलावा और पूरी दुनिया ने लिया होता है .. सामान्यतः हम किसी भी चीज के जिम्मेदार नहीं होते .. क्यूंकि सिर्फ जब कुछ बेहतर हुआ हो तो हम जिम्मेदार हो सकते हैं लेकिन अगर गलत है तो हम जिम्मेदार हो ही नहीं सकते .
क्यों..?
क्योंकि हम कह रहे हैं .. जानते नहीं हो हमें .. ?

इस समय बात कर रहा हूँ नेताओं के सन्दर्भ में .. जब भी कोई भी समस्या हमारे समाज में होती है यहाँ तक कि हमें व्यक्तिगत रूप से भी कोई समस्या होती है तो अधिकतर बार वह बात यहीं आकर समाप्त होती है कि नेता जिम्मेदार है ... 

अगर किसी व्यक्ति ने कई वर्ष काम करते हुए नेता गया, या लोग उसे नेता कहने लगे तो वह अकेला जिम्मेदार पुरे समाज का हो जाता है .. उस से उम्मीदें ऐसी की जाती हैं जैसे किसी राजशाही खानदान का राजकुमार हो वह नेता .. 
किसी को भी अगर वह एक अच्छा विद्यार्थी है तो 3-4 या अधिकतम 5 वर्ष लगते हैं आईएएस या आईपीएस कि परीक्षा उत्तीर्ण होने में लेकिन एक साधारण व्यक्ति को नेता बनने में 24 घंटे काम करते हुए बीसों साल लग जाते हैं और तब भी कोई गारंटी नहीं होती है कि वह नेता बना रहेगा.. उसे कभी भी गद्दी छोडनी पड़ सकती हैं .. और वह गद्दी पर है चाहे नीचे .. उसे जनता की सभी उम्मीदों पर खरा उतरना पड़ता है .. ऐसा नहीं होता जैसे कोई अर्दली आकर कह देता है कि डीएम साहब आज छुटटी पर हैं तो कोई उन्हें परेशान नहीं करेगा | नेता को कभी भी कोई भी कहीं भी बुला सकता है .. नाली टूटने से लेकर पुल टूटने तक .. और क्लर्क से लेकर डीएम तक के काम न करने की वजह भी कहीं नहीं कहीं नेता को ही मान लिया जाता है .. 

लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या अगर हम नेता को बुरा कहने में संकोच नहीं करते और उसे लगातार लगभग हर परेशानियों और दिक्कतों के लिए जिम्मेदार ठहरा देते हैं तो क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या हमारा इस लोकतंत्र, इस समाज में कोई योगदान नहीं है ..? हम अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभा नहीं सकते या हमें सिर्फ बोलना आता है, खाना आता आता है चिल्लाना आता है लेकिन कुछ करना नहीं आता ...?? 

जब हम किसी नेता के कद की बात करते हैं तो सबसे पहले आर्थिक आकलन करते हैं, चारपहियों का आकलन करते हैं, उसके जेब में पैसे की बात करते हैं .. 

कोई भी व्यक्ति कोई कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसी नेता को बुलाता है जो उसे कुछ आर्थिक मदद कर सकता है .. या उसी नेता के साथ खड़ा होता है जिस से उसे कुछ आर्थिक मदद मिलती हो .. जो किसी नेता के साथ एसी गाड़ियों में घूमने को पाता है वही नेता अच्छा होता है ..

हम नेताओं का आकलन उनके व्यक्तित्व और काम करने की इच्छाशक्ति से नहीं बल्कि बल्कि उसी भौतिक सम्पन्नता से करते हैं तो हम नेताओं से उम्मीद ही क्यों रखते हैं कि वो कुछ बेहतर करेंगे ... वोट उसको पड़ता है जो पैसे बांटता है ... तो काम भी तो उसी का होगा जो पैसे देगा .. 

कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी ... नेता उसको मानिये जो आपके सुख दुःख में आपके साथ खड़ा हो .. ऐसा नहीं कि सिर्फ आपको कुछ आर्थिक या भौतिक लाभ पहुंचाए .. दरअसल जब हम अपने व्यक्तिगत लाभों को एक किनारे करके समाजहित के लिए उपयुक्त नेता ढूँढने लगेंगे तो विकल्प आस पास ही मिल सकते हैं .. जरुरत है आर्थिक प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकलने की ... 

और जब इस तरह का माहौल हम दे पाने में कामयाब होंगे तो शायद निम्न वर्ग के परिवारों और मध्यम वर्ग के परिवारों के युवा भी राजनीति में अपनी भागीदारी के विषय में सोच पायेंगे .. और तब ही से स्वस्थ प्रतियोगिता जैसी चीज राजनीति में भी देखने को मिल सकती है .. नहीं तो जो हो रहा है वो तो सबके सामने है ही ...

Monday, December 2, 2013

आखिर क्यों कुछ नया किया जाय ?

बहुत दिनों से कुछ नया नहीं दिखा रहा है, न कुछ नया चल रहा है न कोई नया कुछ कह रहा है .. सब कुछ ऐसा लगता है जैसे सदियों से चला आ रहा है | लगता है जैसे बदलाव न हो रहे हैं और न ही कोई गुंजाइश है, जैसे मानो बदलाव ऊर नयेपन को लकवा मार गया हो | पता नहीं कोई नया कुछ करना नहीं चाहता या कोई अब कुछ नया देखने कि इच्छा ही नहीं रखता या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि सभी को उस परम सत्य कि प्राप्ति हो गयी जिसे सुकरात भी सिर्फ खोजते ही रह गए?

एक पहलू यह है कि कोई कुछ नया करना नहीं चाहता, आखिर क्यों कुछ नया किया जाय ? "इस से हमारा फायदा क्या होगा?" क्या हमें ही गरज है नया करने की .. कोई और क्यों नहीं करता .. हम ही सबका ठेका ले लें?... क्यों सब नया करने के लिए हमारे ऊपर थोपना चाहते हो? क्या पूर्वजों ने जो कर दिया वो काफी नहीं है? .. जो सिस्टम है उसका हिस्सा बनने में ही भलाई है .. नया करोगे तो पिसोगे .. अरे भाई जरुरत ही क्या है?.. हम जो कर रहे हैं उस में हम खुश हैं हमें और नहीं चाहिए ...|

दूसरा पहलु यह भी हो सकता है कि कोई कुछ नया करवाना ही नहीं चाहता .. आखिर क्या करेंगे यह लोग नया करके .. इन लोगो का सिर्फ समय खराब होगा .. नयापन इन लोगो के लिए है ही नहीं .. कहीं कुछ नया हो गया तो सब हमारे हाथ से निकल न जाए !! .. ये लोग तब भी वैसे ही रहेंगे .. ये लोग जैसे हैं इनके लिए वही ठीक है .. क्यूँ इनका समय बर्बाद करना .. जो है उसी में काम कर लें वही बहुत है .. ये नया करेंगे तो हमारा काम कौन करेगा ???

लेकिन एक गंभीर पहलू यह भी हो सकता है कि लोगो को नया करने के लिए मौका नहीं मिल पाता .. पैसा कमायें या नया करें .. कहीं मुझे निकाल न दिया जाय .. पापा नाराज हो जायेंगे... बॉस निकाल देगा .. संसाधन नहीं हैं .. संस्थान नहीं हैं .. समय नहीं है .. समर्थन नहीं है .. मेरे लायक नहीं है .. मैं क्या करूँ ??


दरअसल मैं बात कर रहा हूँ आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नया करने के लिए .. आज शिक्षा उसे कह रहे हैं जिसमे शायद शिक्षा का अंशमात्र भी नहीं है .. हम अपनी परंपरागत प्रणाली को दरकिनार करते हुए लगातार नौकर बनाने वाले साधनों पर बल देते हैं .. हम नियमित कक्षाओं पर नहीं क्रैश कोर्सेज पर बल दे रहे हैं .. हम शिक्षा को शोध और सोच से कहीं दूर सिर्फ शोक कि अवस्था में ले जाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं |


हम नौकरों और नौकरशाहों की जमात कड़ी करने में लगे हैं लेकिन इस पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं कि इनके नैतिक मूल्यों के बारे में कौन सोचेगा ? इनकी कार्यपद्धति के बारे में कौन सोचेगा ? इनकी दिशा कैसे तय होगी ? हम टीवी बनाते जा रहे हैं और रिमोट भी बना रहे हैं लेकिन डिशटीवी को सन्देश देने वाले उस महान सेटलाईट को नजरअंदाज कर रहे हैं |


काम और कागज़ और भौतिक रूप में दिखने वाली चीजों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है वो सोच जो उनमे दिखती हो | और ऐसी सोच और सिद्धांतों का निर्माण होता है जब हम शोध करते हैं, चिंतन करते हैं, मनन करते हैं लेकिन हमारी व्यवस्था इसकी इजाजत नहीं दे पाती | कहने के लिए शोध पर खूब पैसे खर्च होते हैं और कई विद्यार्थी और बुद्धिजीवी लोग शोध और सोच में लगे हुए हैं लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम कहीं दिखते नहीं हैं |

अभी जल्दी ही UGC के उप चेयरमैन श्री देवराज जी ने कहा है कि हम कन्वेंशनल कोर्सेज कि जगह पर वोकेशनल कोर्सेज 10 वर्ष के भीतर ही लायेंगे | इसका मतलब तो यही है कि आप सोच को बंद करके सिर्फ नौकरी कराने के लिए शिक्षा देना चाहते हैं | आप वोकेशनल कोर्सेज ले आइये इसमें क्या दिक्कत है लेकिन कन्वेंशनल कोर्सेज की जगह लाना किसी भी रूप में सही नहीं दिखता और अगर ऐसा होता है तो भारत के लिए तो बहुत ही घातक होगा और मैकाले के सपने को हम काफी हद तक सच करने में सफल होंगे |

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