
जबसे लखनऊ आये हैं तब से बहुत नहीं घूमे लेकिन जब जरुरत पड़ी तो लोगो ने बताया कि किताबें अमीनाबाद में मिलती हैं और बस दोपहर में मैं और मेरे मित्र योगेश हम दोनों ऑटो से अमीनाबाद कि लिए निकल पड़े, एमिटी यूनिवर्सिटी चौराहे से चिनहट से पॉलिटेक्निक से भूतनाथ से निशातगंज से लखनऊ विश्वविद्यालय होते हुए फटफटाती ऑटो हम काफी आगे बढे और एक जगह जाकर ऑटो रुका और ड्राईवर बोला "उतरो अमीनाबाद", मैंने एक दूकान के बोर्ड पर नीचे लिखा देखा 'राजा बाजार' और मैंने उस से कहा कि यह तो राजा बाजार है तो उसने कहा कि आगे अमीनाबाद है |
हम ऑटो से उतर गए और अब हम पैदल थे, जब हमने चलना शुरू किया तो वहीँ से एक मैदान की दीवार भी शुरू हो रही थी, काफी बड़ा मैदान दिख रहा था यह, लेकिन इसमें बीच - बीच में मूर्तियाँ थीं और बहुत से छुट्टा जानवर और लोग थे, मैं बहुत गौर से अपने साथ चल रही उस दीवार और और उसके अन्दर के मैदान को देख रहा था और मैं मेरे मित्र हम दोनों इस पर चर्चा करने लगे कि आखिर यह किसकी मूर्ति है और इस मैदान को इतनी बढ़िया दीवारों से घेरा क्यों गया है? हमने तय किया कि किताबें खरीदने के बाद हम इस मैदान और मूर्तियों के बारे आस पास के लोगो से पूछ लेंगे और हमें इतना दिमाग लगाने की जरुरत नहीं है |
दुकान पर पहुंचे किताबों के नाम लिए कुछ किताबें मिलीं और कुछ नहीं मिलीं, लेकिन एक बात जरुर कहना चाहूँगा कि जो हमेशा सुनते और पढ़ते आये थे कि यह नवाबों का शहर है और तहजीब का नमूना यहाँ देखने को मिलता है, ऐसा कुछ भी उस दूकान और दुकानदार के व्यवहार से नहीं लगा |

बस यही था वो जवाब जिसे सुनकर दिमाग में अजीब सा कोलाहल हुआ और फिर सोचा कि क्यों न कुछ और लोगो से पूछा तो लोगों ने कुछ इस तरह से जवाब दिए :
"अरे भैया ! हम दूकान लगाते हैं, हमें इस से क्या मतलब?"
"नहीं जानते "
"बहुत दिन से है, हम नहीं जानते |"
"अम्बेडकर की है शायद!"
हमने तय किया कि हम खुद ही जाकर देख लेते हैं कि यह कैसा मैदान है और किसकी मूर्तियाँ हैं | अन्दर घुसने से पहले एक मोटरसाइकिलों का स्टैंड था, दीवारों पर तमाम तरह के पुराने कपडे और कूड़े फेंके हुए दिख रहे थे, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस दीवार को बहुत दिनों से उपेक्षित कर दिया गया था लेकिन ऐसा सिर्फ दीवारों पर ही नहीं था, जब हम अन्दर उस विशाल गेट से होते हुए अन्दर उस बड़े मैदान में घुसे तो ऐसा लगा जैसे पियक्कड़ों के संरक्षण क्षेत्र के रूप में उस मैदान को आरक्षित किया गया था | जिस तरफ देखो उधर लोग पी कर मदहोश लेटे या बैठे हुए थे तो कोई ताश खेल रहा था, और जानवरों की स्थिति उन नशे में धुत लोगों से ज्यादा बेहतर दिख रही थी क्यूंकि वो जानवर उस मैदान में फेंके गए कूड़े करकट साफ़ कर के मैदान साफ़ ही कर रहे थे |
आगे देखना था कि यह मूर्ति किसकी है ?

स्वतंत्रता प्राप्ति में झंडा आंदोलन का विशेष महत्व है। कई लोगों ने इसके अस्तित्व की लड़ाई में सीने पर गोली खाने से भी परहेज नहीं किया। फतेहपुर चौरासी क्षेत्र के ग्राम चंद्रिकाखेड़ा के युवक गुलाब सिंह लोधी ऐसे ही साहसी थे | लेकिन अब उनका साहस किसी काम का नहीं है क्यूंकि अंग्रेजों से लड़ना कहीं ज्यादा आसान था इस आजाद भारत के घाघ नेता और अधिकारियों से लड़ने से |
उनकी मूर्ति कबूतर की बीट खा रही है और कोई देखने वाला नहीं है और ऐसी ही स्थिति जो दूसरी मूर्ती है वो है युवाओं के प्रेरणास्रोत और जिसकी 150वां जन्मवर्ष हम मना रहे हैं ऐसे श्री स्वामी विवेकानंद जी कि प्रतिमा और उसकी यह स्थिति देखकर काफी दुर्भाग्य का अनुभव हुआ |
आगे और पता नहीं लखनऊ की और कैसी तस्वीरें देखने को मिलेंगी लेकिन यह तस्वीर बिलकुल भी अच्छी नहीं थी | बहुत खुश नहीं बल्कि निराशा के साथ यह लेख लिखा हूँ |
very gud अति उत्तम सार्थक प्रयास । शुभकामना
ReplyDeletedhanyawad mama ji
ReplyDeleteBAHUT AACCHCHCHE
ReplyDeletenice effort Bhavesh.... bahut achaa likha hai.... ye to baat sahi hai ki lko me ab wo pahle wali baat nhi rahi, kahi jaise kch miss hai.....
ReplyDelete