बहुत दिनों से कुछ नया नहीं दिखा रहा है, न कुछ नया चल रहा है न कोई नया कुछ कह रहा है .. सब कुछ ऐसा लगता है जैसे सदियों से चला आ रहा है | लगता है जैसे बदलाव न हो रहे हैं और न ही कोई गुंजाइश है, जैसे मानो बदलाव ऊर नयेपन को लकवा मार गया हो | पता नहीं कोई नया कुछ करना नहीं चाहता या कोई अब कुछ नया देखने कि इच्छा ही नहीं रखता या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि सभी को उस परम सत्य कि प्राप्ति हो गयी जिसे सुकरात भी सिर्फ खोजते ही रह गए?
एक पहलू यह है कि कोई कुछ नया करना नहीं चाहता, आखिर क्यों कुछ नया किया जाय ? "इस से हमारा फायदा क्या होगा?" क्या हमें ही गरज है नया करने की .. कोई और क्यों नहीं करता .. हम ही सबका ठेका ले लें?... क्यों सब नया करने के लिए हमारे ऊपर थोपना चाहते हो? क्या पूर्वजों ने जो कर दिया वो काफी नहीं है? .. जो सिस्टम है उसका हिस्सा बनने में ही भलाई है .. नया करोगे तो पिसोगे .. अरे भाई जरुरत ही क्या है?.. हम जो कर रहे हैं उस में हम खुश हैं हमें और नहीं चाहिए ...|
दूसरा पहलु यह भी हो सकता है कि कोई कुछ नया करवाना ही नहीं चाहता .. आखिर क्या करेंगे यह लोग नया करके .. इन लोगो का सिर्फ समय खराब होगा .. नयापन इन लोगो के लिए है ही नहीं .. कहीं कुछ नया हो गया तो सब हमारे हाथ से निकल न जाए !! .. ये लोग तब भी वैसे ही रहेंगे .. ये लोग जैसे हैं इनके लिए वही ठीक है .. क्यूँ इनका समय बर्बाद करना .. जो है उसी में काम कर लें वही बहुत है .. ये नया करेंगे तो हमारा काम कौन करेगा ???
लेकिन एक गंभीर पहलू यह भी हो सकता है कि लोगो को नया करने के लिए मौका नहीं मिल पाता .. पैसा कमायें या नया करें .. कहीं मुझे निकाल न दिया जाय .. पापा नाराज हो जायेंगे... बॉस निकाल देगा .. संसाधन नहीं हैं .. संस्थान नहीं हैं .. समय नहीं है .. समर्थन नहीं है .. मेरे लायक नहीं है .. मैं क्या करूँ ??
दरअसल मैं बात कर रहा हूँ आज के समय में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ नया करने के लिए .. आज शिक्षा उसे कह रहे हैं जिसमे शायद शिक्षा का अंशमात्र भी नहीं है .. हम अपनी परंपरागत प्रणाली को दरकिनार करते हुए लगातार नौकर बनाने वाले साधनों पर बल देते हैं .. हम नियमित कक्षाओं पर नहीं क्रैश कोर्सेज पर बल दे रहे हैं .. हम शिक्षा को शोध और सोच से कहीं दूर सिर्फ शोक कि अवस्था में ले जाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं |
हम नौकरों और नौकरशाहों की जमात कड़ी करने में लगे हैं लेकिन इस पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं कि इनके नैतिक मूल्यों के बारे में कौन सोचेगा ? इनकी कार्यपद्धति के बारे में कौन सोचेगा ? इनकी दिशा कैसे तय होगी ? हम टीवी बनाते जा रहे हैं और रिमोट भी बना रहे हैं लेकिन डिशटीवी को सन्देश देने वाले उस महान सेटलाईट को नजरअंदाज कर रहे हैं |
काम और कागज़ और भौतिक रूप में दिखने वाली चीजों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है वो सोच जो उनमे दिखती हो | और ऐसी सोच और सिद्धांतों का निर्माण होता है जब हम शोध करते हैं, चिंतन करते हैं, मनन करते हैं लेकिन हमारी व्यवस्था इसकी इजाजत नहीं दे पाती | कहने के लिए शोध पर खूब पैसे खर्च होते हैं और कई विद्यार्थी और बुद्धिजीवी लोग शोध और सोच में लगे हुए हैं लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम कहीं दिखते नहीं हैं |
अभी जल्दी ही UGC के उप चेयरमैन श्री देवराज जी ने कहा है कि हम कन्वेंशनल कोर्सेज कि जगह पर वोकेशनल कोर्सेज 10 वर्ष के भीतर ही लायेंगे | इसका मतलब तो यही है कि आप सोच को बंद करके सिर्फ नौकरी कराने के लिए शिक्षा देना चाहते हैं | आप वोकेशनल कोर्सेज ले आइये इसमें क्या दिक्कत है लेकिन कन्वेंशनल कोर्सेज की जगह लाना किसी भी रूप में सही नहीं दिखता और अगर ऐसा होता है तो भारत के लिए तो बहुत ही घातक होगा और मैकाले के सपने को हम काफी हद तक सच करने में सफल होंगे |
waahhhh, very good, bahut achaa likha hai Bhavesh, khasskar aaj ki modern education ki baatein, very nice , aise hi likhte raho.....
ReplyDeletethanks bhai
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