Tuesday, August 7, 2012

निर्णायक आन्दोलन - 1942

(भारत छोड़ो आन्दोलन)  Quit India Movement

देश की आजादी के लिए हुए संघर्षों में से अगर किन्ही दो वर्षों को चिन्हित करने को कहा जाय तो पहला वर्ष 1857 और दूसरा निःसंदेह  1942 होगा। 1857 पहली क्रांति पहल थी जिसने देश को असल में एहसास दिलाया कि  हमे आजाद होना चाहिए और अब हम वास्तविकता में ब्रिटिश सरकार के चंगुल में फंस चुके हैं, और यह वर्ष लोगों के जाग्रति वर्ष के रूप में भी देखा जा सकता है। इसके बाद अनेकों क्षेत्रीय और राष्ट्रीय आन्दोलन चलाये गए। हत्याकांडों का सिलसिला चलता रहा, युवा पीढ़ी जगने  लगी, गरम दल नरम दल जैसी गुटबाजी भी होने लगी। युवा आंदोलनों का का गहरा प्रभाव भी अंग्रेजी हुकूमत पर दिखने लगा था। संघर्षों का सिलसिला थमा नहीं। असहयोग आन्दोलन हुवा लेकिन अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाया क्यूंकि गांधी जी ने इसे वापिस ले लिया। जिस से युवा नाराज भी हुए।

दूसरा महत्वपूर्ण वर्ष 1942 रहा जब यह लगने लगा था की भारत पर जापान पर हमला कर सकता है। इस संकट की घरी में भारतियों का समर्थन प्राप्त करने के लिए अमेरिका, रूस, और चीन लगातार ब्रिटेन पर दबाव बना रहे थे। इस उद्देश्य के लिए स्टेनफोर्ड क्रिप्स को भारत भेजा गया। जहां ब्रिटिश सरकार भारत को पूर्ण स्वतंत्र नहीं करना चाहती थी वहीँ गाँधी जी को डर था कि कहीं देश अंग्रेजों के हाथ से निकलकर नाजियों के हाथ में ना आ जाए। ब्रिटेन सरकार सुरक्षा अपने हाथ में रखना चाहती थी लेकिन भारतीय प्रतिनिधियों ने इसे अस्वीकार कर दिया।


इसी बीच दुसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेनाओं को दक्षिण - पूर्व एशिया में मिलती  मात को देखते ही नेताजी सुभाष ने आजाद हिंद फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया। काफी युवाओं का रुझान नेताजी की तरफ ही था।


काकोरी हत्याकांड के ठीक 17 वर्ष बाद गाँधी जी ने देश की जनता को "करो या मरो" का नारा देते हुए भारत छोडो आन्दोलन का आह्वान किया। और कांग्रेस की बैठक में कहा गया की अब अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही पड़ेगा और भारत अपनी सुरक्षा स्वयं करेगा। जबकि जवाहर लाल नेहरु ने इसे दोधारी तलवार करार दिया था और इस बात का अंदेशा जताया था की यह हमारे लिए घातक भी हो सकता है। कांग्रेस से गांधी जी के इस आह्वान पर खुलकर समर्थन नहीं मिल पा रहा था। तो गाँधी जी ने भी कहा कि  "मैं देश की बालू से ही कांग्रेस से बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दूंगा।." और यह भी कहा कि "एक देश तब तक आजाद नहीं हो सकता जब तक की वह के लोग एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते। वे लोग जो कुर्बानी देना नहीं जानते, आजादी प्राप्त नहीं कर सकते।"

वहीँ राजनीतिक दलों में साम्यवादी दल ने इस भारत छोडो आन्दोलन (अगस्त क्रांति)) की निंदा की,, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ही इसे अपने धर्म के हित में नहीं मान रहे थे। आंबेडकर ने इस आन्दोलन को पागलपन कहा और तेज बहादुर सप्रू ने इसे असामाजिक  और असामयिक बताया। कांग्रेस के उदारवादी इसे सही नहीं मान रहे थे।

तमाम आलोचनाओं के बावजूद बगैर नेतृत्व के भी यह आन्दोलन कुछ तो जरुर परिणाम लाने वाला था. बस्ती, बलिया चित्तू पाण्डेय के नेतृत्व में , मुंबई में सतारा नाना पाटिल के नेतृत्व में, बंगाल में मिदनापुर और भार के कुछ इलाकों में आन्दोलन के समय ही अस्थायी सरकार की स्थापना कर दी गयी। हालंकि ये अस्थायी सरकारें ज्यादा दिन तक नहीं चलीं, और सबसे ज्यादा दिन तक सतारा की सामानांतर सरकार चली। लेकिन  लोगों के अन्दर ख़ासा आत्मविश्वास आने लगा।

इस आन्दोलन में कुछ कमियाँ भी थीं जिन्हें चिन्हित करना चाहिए. जैसे इस आन्दोलन में संगठन और योजना में कमी थी, उच्च अधिकारियों में वफादारी का अभाव था और नेतृत्व की कमी के साथ साथ आन्दोलनकारी जनता के पास साधन और शक्ति का भी अभाव था।

भारत छोडो आन्दोलन जिसे "अगस्त क्रांति" भी कहा गया, एक जनांदोलन था, जिसमे देश की जड़, यहाँ की जनता शामिल थी, हर जाति वर्ग का यक्ति इस आन्दोलन को सफल बनाने में लगा था जिस आन्दोलन ने युवाओं को फिर से प्रेरित किया और युवाओं ने देश की लड़ाई को प्राथमिकता दी।

आन्दोलन में लगभग 1000 लोगो की जान गयी और कई घायल हुए, कुल  60,000 से ज्यादा लोग बंदी बनाये गए। जिनमे से एक गांधी जी भी थे, जिनके साथ सरोजनी नायडू, राजेंद्र प्रसाद सरीखे नेता बंदी बनाये गए। गांधी जी को 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद कई नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ रिहा कर दिया गया। 

उधर जहा कांग्रेसी नेता जेल में थे इधर जिन्ना और मुस्लिम लीग को अपनी पहचान बनाने का मौका मिल गया। पंजाब और सिंध जैसी जगह जहां उनके बारे में आम जनता में कोई जानकारी नहीं थी वह भी उनकी पहुँच बन गयी। अब कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दूरियां बढ़ने लगीं। गांधी जी ने बाहर निकलकर सबसे पहले मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच की दूरी मिटाने की कोशिश की लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद नाकाम रहे। ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी जो भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में थी। वायसराय वावेल ने कई बैठकों का आयोजन इस बात को लेकर किया की दोनों पक्षों में सहमती बन जाए लेकिन कुछ न हो सका।

1946 की शुरुआत में प्रांतीय विधान मंडल चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस को अधिकतर सीटों पर जीत हासिल हुयी। जबकि मुस्लिम  आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग का परचम लहरा रहा था।. राजनीतिक विघटन दिखने लगा था।

बाद में जिन्ना ने अलग पाकिस्तान देश की मांग कर दी जिस पर चर्चा के लिए 16 अगस्त 1946 तारीख मुक़र्रर कर दी गयी कि  उसी बीच कलकत्ता से खुनी संघर्ष शुरू हो गया कहीं भरी मात्र में हिन्दू तो कहीं मुस्लिम  आहत  हुए।. आखिरकार कोई वार्ता नहीं हो पायी।. फरवरी 1947 में नए वायसराय माउन्टबेटन  आये और उसके बाद उन्होंने भी कई कोशिशें की दोनों पक्षों में सहमती बनाने की लेकिन असफल रहे। अंततः दो देशों में राष्ट्र विभाजित हुआ भारत और पाकिस्तान।.

1942 को मैं एक निर्णायक वर्ष इसलिए मानता हु क्यूंकि तभी से देश की आजादी का बीज बोया गया।. जहां 1857 शुरुआत था वहीँ 1942 अंत।. इसको अंतिम संग्राम भी कहा जा सकता था जब  देश की जनता सड़कों  पर थी और युवा कालेज छोड़कर देश को आजाद कराना ही अपना मकसद बना बैठे थे।.

किसी भी देश की गरिमा और अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जरुरत पड़ने पर इस तरह के आन्दोलन समय समय पर होने चाहिए। लेकिन यह निर्भर करता है उस देश के युवा पर की उस देश का युवा अपने देश के लिए कितना समर्पित है।

जय भारत।.

-भावेष  कुमार पाण्डेय 'विनय' 

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