Saturday, July 30, 2011

मुस्कराइए कि हम इंसान हैं


मुल्ला नसीरुद्दीन को अरब के सुल्तान हमेशा अपने साथ रखते थे। नसीरुद्दीन की हाजिरजवाबी सुल्तान को बहुत भाती थी। एक बार सुल्तान का काफिला किसी रेगिस्तान से गुजर रहा था। उन्हें दूर से कोई अनजान कस्बा दिखाई दिया। कस्बे को देखकर सुल्तान ने नसीरुद्दीन से कहा, मुल्ला, चलो देखते हैं कि इस कस्बे में कितने लोग अपने सुल्तान को पहचानते हैं। तुम किसी को मेरा परिचय मत देना।

सुल्तान ने शाही कारवां बाहर ही रुकवा दिया और कस्बे में पैदल प्रवेश किया। सुल्तान को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आने-जाने वालों में से किसी ने भी सुल्तान की तरफ ध्यान नहीं दिया, परंतु हर कोई मुल्ला को देखकर मुस्कुरा रहा था। सुल्तान चिढकर बोले, मुल्ला, मुझे यहां कोई नहीं जानता, परंतु तुम्हें तो सब पहचानते हैं। नसीरुद्दीन ने कहा, जहांपनाह, ये लोग मुझे भी नहीं पहचानते। सुल्तान ने हैरत से कहा, फिर ये तुम्हें देखकर मुस्कराए क्यों? मुल्ला नसीरुद्दीन ने बडे अदब से कहा, हुजूर, क्योंकि मैं इन्हें देखकर मुस्कराया।

यह छोटा-सा किस्सा मुस्कराहट की ताकत को बयां करता है। एक मुस्कराहट से हम दूसरे के होठों पर मुस्कराहट ला सकते हैं। अनजान को भी अपना बना सकते हैं। हंसना-मुस्कराना इंसान का प्राकृतिक स्वभाव है। नन्हा शिशु बिना किसी कारण के मुस्कराता है। उसकी हंसी निर्मल और स्वार्थहीन होती है। परंतु जैसे-जैसे शिशु, बालपन और किशोरावस्था की ओर बढता है, उसकी हंसी कम होती जाती है। युवावस्था आते-आते चेहरे पर तनाव जगह बनाने लगता है। फिर मुस्कान ईद का चांद बन जाती है।

एक शेर है-खुल के हंसना तो सबको आता है, लोग तरसते हैं इक बहाने को..। लोगों को वह बहाना ही नहीं मिल पाता, जिसकी वजह से वे हंस-मुस्करा पाएं। आजकल रोजी-रोटी के झमेलों में मध्यवर्ग इतना फंस गया है कि परिवार और मित्रों के संग हल्के-फुल्के क्षण कम होने लगे हैं। काम की अधिकता और समय सीमा वाले लक्ष्य, तनाव को बढावा देते हैं। लेकिन यदि इन तनावों में भी मुस्कराते रहें, तो तनाव को पराजित कर सकते हैं। संकटों के बीच मुस्कराहट को खींच लाया जाए, तो संकट की प्रवणता कम हो जाती है। जिन्होंने मुस्कराहट को आदत बना लिया है, उनके चेहरे देखकर ताजगी का अहसास होता है। ऐसा लगता है कि गर्म लू के थपेडों के बीच ठंडी हवा का झोंका आ गया हो। मुस्कराने वाले सकारात्मक सोच वाले होते हैं। वे परिस्थितियों से डरकर मुस्कराहट का साथ नहीं छोडते। वे यही शेर गुनगुनाते हैं- हुजूमे गम मेरी फितरत बदल नहीं सकते..क्योंकि मेरी आदत है मुस्कराने की..

ऐसे लोग जहां भी जाते हैं, भारी और बोझिल वातावरण को भी हल्का और विनोदपूर्ण बना देते हैं। उनका संदेश है कि अपनी मुस्कान से दुनिया के सारे दुख-दर्द मिटा डालो।

via- jagran

Wednesday, July 6, 2011

नेकी कर, दरिया में डाल

रात्रि के दस बज चुके थे। रीता अपने कार्यालय से निकली और बस में बैठ गई। आज घर लौटने में देर हो गई थी। मन के अंदर संशय घर कर गया था, गीता मन ही मन साहस जुटा रही थी। बगल की सीट पर एक अधेड आकर बैठ गया। एक घंटे में बस स्टॉप आ गया तो वह उतरी और तेज कदमों से चलने लगी।

एक किलोमीटर की दूरी पर गीता का आवास था। सडक सुनसान हो गई थी तभी उसे अहसास हुआ कि कोई उसका पीछा कर रहा है। वह तेज चलने लगी और उसकी धडकन बढ गई। मन में कई अनजान आशंकाएं घिर आई। एक मोड देखकर वह गलीनुमा रास्ते में घुस गई और चाल को और भी तेज कर दिया।

जो व्यक्ति पीछा कर रहा था, वह रमेश था। गांव से अपनी बेटी को पैसा देने आया था। रमेश के पांव पीछा करते करते कांपने लगे थे। डाक्टर ने उसे तेज चलने से मना किया था परंतु वह आज तेज चलने की ही कोशिश कर रहा था।

गीता को लगने लगा था कि आज कुछ बुरा होने वाला है। इस ठंड के मौसम में सडकें, गली, मुहल्ले सभी खाली थे और लूटपाट आम बात थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? सोचने लगी- मैं कमजोर नहीं हूं। मेरे पास भी मिर्ची का पाउडर है तभी तेज भागता हुआ वह उसके पास पहुंच ही गया। दमे का रोगी रमेश हांफ रहा था। गीता साहस करके रुक गई और रमेश कुछ बोलता कि वह चिल्लाने लगी-लडकी का पीछा करते शर्म नहीं आती है।

वह तन कर खडी हो गई। वह जता रही थी कि उसे किसी का डर नहीं। रमेश अवाक् था और कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। रमेश ने वह फाइल जो गीता बस की सीट पर भूल आई थी, उसकी तरफ बढा दी। गीता ने फाइल ले ली और मिर्च का पाउडर उसके हाथों से गिर पडा। वह नि:शब्द थी, फाइल अनमोल थी, वह बोली- सॉरी अंकल!मेंशन नॉट।- कहते हुए रमेश अपने रास्ते हो लिया और भारी कदमों, गीता अपने रास्ते।


Source: Jagran

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