Thursday, February 28, 2013

नगर के डगर की तस्वीर - भाग 1

यह तस्वीर सिर्फ उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की ही नहीं बल्कि भारत के लगभग हर विकसित और विकासशील नगर की है | हर नगर में एक ऐसी बस्ती मिल जायेगी जिनका उस नगर की मुख्य धारा से कोई ख़ास ताल्लुक नहीं रहता | और इनके बच्चे इस तरह सड़क के किनारे बड़े बड़े नालों में अपनी छोटे से बचपन को ढूंढते हुए मिल जाते हैं | उन्हें जिंदगी का मतलब पानी की खाली बोतलों से लेकर और गुटखे के पैकेट तक ही मालूम है | उन्हें इस बात से मतलब नहीं होता की मैच भारत जीतेगा या इंग्लैंड और न ही इस से मतलब होता है की फिल्म कौन सी रिलीज हो रही है, वो भारत के प्रधानमंत्री के बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते |

छोटू को सिर्फ इतना मालूम है की पास वाली गली में अगर वो जल्दी ही नहीं गया तो इक़बाल वहां से कूड़े में से सामान निकल कर लेता जाएगा | उसे मालूम है की सुबह सुबह कौन कौन सी जगहें हैं जहां वह जाकर शराब की बोतलें पा सकता है जिसे बेच कर वो अपने घर पैसे लाएगा |

ऐसा घर जिसमे सभी को अपनी जिम्मेदारियां बाकायदा पता है | किसी को रोज अपना काम करने के लिए बताना नहीं पड़ता | माँ को अपने सबसे छोटे बच्चों के साथ रेलवे स्टेशन निपटाकर फिर मोहल्लों में भीख मांगने जाना है, बड़ी बेटी और लड़के को कूड़ा इकठ्ठा करने जाना है और बाप को शाम के समय सबका हिसाब लेना है |

इनके पास की समाजसेवी संस्थाएं इनके लिए अगर कुछ करने का प्रयास भी करें तो इन्हें लगता है की वो इनका भविष्य बिगाड़ रही हैं । अगर इनके बच्चों को शिक्षा देने की बात की जाती है तो इन्हें लगता है कि घर का एक कमाने वाला कम हो जायेगा ।

लेकिन फिर भी इस तस्वीर को बदलने की आवश्यकता है और इन्हें जो भी कोशिश हो करके समझाना होगा । इनके लिए भी योजनायें होनी चाहिए और उनपर बेहतर काम भी होना चाहिए ।

-भावेष कुमार पाण्डेय 'विनय' 

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